ब्राह्मण नंदी की देखभाल बड़े प्यार से करता था,
हरी घास के साथ वह उसे चावल का मांड भी खाने को देता था। नंदी बढ़ते-बढ़ते एक मजबूत बैल
बन गया, वह अपने मालिक का बहुत उपकार मानता था और वह उसका भला करना चाहता था।
एक दिन नंदी ने ब्राह्मण से कहा, “मालिक पास के
गाँव में एक धनी व्यापारी है। उसके पास बहुत से तगड़े बैल हैं। आप जा कर उनसे १०००
अशर्फियों की शर्त लगा कर कहिये कि मेरा बैल माल से लदी हुई १०० गाड़ियां खींच सकता
है।”
पहले तो ब्राह्मण झिझका, लेकिन नंदी के बहुत जोर
देने पर वह व्यापारी के पास गया। व्यापारी ने शर्त सुनी और मुकाबले के लिए तैयार
हो गया। उसे पूरा विश्वास था कि ब्राह्मण शर्त हार जाएगा। खुद ब्राह्मण को भी पूरा
भरोसा नहीं था कि मैं जीत पाऊंगा।
अगले दिन ब्राह्मण ने नंदी को नहलाया, चारा
खिलाया और माला पहनायी, फिर उसने सौ बैलगाड़ियों में कंकड़ भरे और नंदी को पहली गाडी
में जोत कर उसके कंधे पर जूआ रख दिया। फिर वह गाड़ीवान के आसन पर बैठ गया और छड़ी
हिला कर बोला – “हुर्र! चल रे बदमाश नंदी, चल!”
नंदी को यह सुनकर अच्छा नहीं लगा कि उसे बदमाश
कहा जाए, सो उसने मालिक की आज्ञा नहीं मानने का निर्णय कर लिया, वह चारों खुर जमीन
पर मजबूती से जमा कर खड़ा रहा। ब्राह्मण ने पहले उसे डांटा, फिर उसे फुसलाने का
प्रयास किया, पर सब व्यर्थ था।
अंत में ब्राह्मण अपने भाग्य को कोसता हुआ नीचे
उतर आया, वह शर्त हार चुका था! व्यापारी ने ब्राह्मण से १००० अशर्फियां वहीं वसूल
कर ली।
घर लौट कर नंदी ने देखा कि ब्राह्मण बिस्तर पर
पड़ा फूट-फूट कर रो रहा है। उसने पास जा कर पूछा, “आपने मुझे बदमाश क्यों
कहा? मैंने आपका कुछ बिगाड़ा नहीं था!”
फिर मालिक पर तरस खा कर वह उससे बोला, “कल फिर जा
कर व्यापारी के साथ २००० अशर्फियों की शर्त लगाइए, पर याद रखिए, कल की तरह मुझे
अपशब्द मत कहिएगा!”
इस बार ब्राह्मण ने नंदी की बात को याद रखा और
अगले दिन १०० भरी हुई गाड़ियों में उसे जोतने के बाद उसे हल्के से थपथपाया।
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